बुधवार, 12 दिसंबर 2018

प्यार नहीं खोना (कहानी) | Love Story | Pyar nahi khona

सुधाकर सर अपने निजी कोचिंग संस्थान में छात्रों के साथ व्यस्त थे कि मोबाइल बज उठा. देखा तो पत्नी रीमा का फोन आ रहा था. क्लास से बाहर आकर रिसीव किया,

“हाँ बोलो रीमा...”

“अरे आज जल्दी लौटिए थोड़ा...” रीमा की आवाज में उत्साह था.

“काहे भई?” सुधाकर ने जानना चाहा.

“वो मधु अपनी मम्मी के साथ आने वाली है अभी थोड़ी देर में...” कहते-कहते रीमा बच्चों सी किलक उठी. सुधाकर सर को हँसी आ गयी. मधु उनके बेटे साहिल की दोस्त थी और दोनों में खूब निभती थी. इसके अलावा मधु का सीधा-सरल तथा व्यवहारकुशल स्वभाव सुधाकर और उनके परिवार के बाकी लोगों को भी बहुत पसंद आता था. हमेशा सोचते कि काश इसके ही जैसी लड़की हमारी बहू बनती! मधु के अपनी मम्मी को साथ लाने की बात सुनकर उसके पीछे छिपी संभावना को भाँप भीतर-भीतर वे भी खुश तो बहुत हुए लेकिन रीमा को छेड़ने के उद्देश्य से बोले,

“अरे तो सम्हाल लेना न तुम! आज नया बैच शुरू हुआ है, उसको देखना जरूरी मुझे!”

“ओह्हो” रीमा सचमुच चिढ़ गयी, “देर से बात समझ आती आपको हमेशा, मधु की मम्मी साहिल से कई बार मिल चुकी है और अब बेटी को लेकर हमारे घर आ रही...अब समझे या नहीं?”

“हाहाहा ठीक है बाबा, निकलता हूँ ये क्लास लेकर” कह के सुधाकर ने फोन काट दिया. थोड़ी ही देर में उनकी कार घर की ओर बढ़ रही थी और मन आगे की बातें सोचने में जुटा था. अपने बच्चों की शादी हर भारतीय पिता के लिए उल्लास का विषय जो होती!
मधु ने बताया था कि उसकी माँ सिंगल मदर है और उसने उसको अनाथालय से गोद लिया हुआ. वे किसी और जगह के रहनेवाले लेकिन कई सालों पहले इस शहर में आकर बस गये. उसकी माँ का अपना अचार बनाने का गृह उद्योग जो काफी अच्छा चलता था. वह कई महिलाओं के रोजगार का साधन भी था. अक्सर वह अपने यहाँ के अचार दे जाती थी और घर के लोग उसके अनोखे स्वाद की प्रशंसा किये बिना रह नहीं पाते. सुधाकर अपने घर में हमेशा चर्चा करते कि क्या हुआ जो मधु अपनी माँ की गोद ली हुई बेटी है! बेटी तो बेटी होती है! कोख से जन्मी और गोद ली हुई में कोई अंतर नहीं. सच्चे सम्बन्ध रक्त से नहीं बल्कि ह्रदय से बनते हैं.

इसी सोच-विचार के बीच उनकी नजर वहाँ की मशहूर मिठाइयों की दुकान पर पड़ी. उन्होंने तुरंत ड्राइवर को रुकवाया और खास खुशबू वाली मिठाई पैक करा ली. घर पहुँचने पर एक ऑटो बाहर लगी मिली. समझ गये कि  माँ-बेटी आ गयीं! अन्दर घुसे ही थे कि अपनी बीवी और बेटियों की मधुर आवाजों के अलावा एक और जानी-पहचानी सी लेकिन बहुत पीछे छूट चुकी बोली कानों में आने लगी. कदम कुछ देर थम के सुनिश्चित करने में लग गये कि क्या दिल जिसकी ओर इशारा कर रहा, ये उसी की आवाज है! बारह आने तो तय हो चुका था कि ये वही है! पूरा सुनिश्चित तो देख के ही हो सकता था! सो कदम धीरे-धीरे बढ़ने लगे. अतिथि कक्ष के पास आये ही थे कि रीमा बोल पड़ी,

“लीजिए, आ गये ये भी...मिलिए मधु की मम्मी शोभा जी से!”

नाम सुनाई देते-देते उनकी नजरें भी मिल चुकी थीं. सुधाकर सर का दिमाग सन्न-सन्न करने लगा. शोभा भी उठ के खड़ी हुई और मानों जड़वत हो गयी! एक-दूसरे को तो वे कई जन्मों बाद भी मिलने पर मानों पहचान लेते और यहाँ तो इसी जिंदगी की कहानी थी! समय सरसराता हुआ तीस साल पीछे जाने लगा. पुरानी बातें आज अरसे बाद पुनः शोर मचाने लगीं.

“सुधाकर, तुम मेरे दोस्त हो! बहुत प्यारे दोस्त! मैं तुमसे जिंदगी भर जुड़े रहना चाहूँगी लेकिन शादी नहीं...मैं शादी नहीं करना चाहती, किसी से नहीं”

“ल...लेकिन शोभा तुम तो मुझसे हर बात कहती थी अपनी, सबसे अलग जगह दे दी थी मुझे और जब मेरा मन तुम्हारी पूजा करने लगा तो तुम...”

“सुधाकर-सुधाकर मेरी बात समझ! तू मेरा दोस्त...”
“दोस्त माई फुट! मुझे नहीं रहना तुम्हारा दोस्त...भाड़ में जाओ तुम और तुम्हारी दोस्ती...जिसके लिए मुझे छोड़ रही हो न, उसी के साथ खुश रहना...”

यादें चुप होने का नाम नहीं लेतीं यदि सुधाकर की वर्तमान स्थिति ने उन्हें झिंझोड़ा नहीं होता. उन्होंने तुरंत खुद को नियंत्रित किया और शोभा का औपचारिक अभिवादन किया.

“नमस्कार शोभा जी, आपकी बेटी से तो अब हमारा भी अपनापन हो चुका है”

शोभा ने भी समय की माँग को समझ मुस्कुराने की कोशिश करते हुए हाथ जोड़ दिए. सब फिर से बैठ गये और बातों का सिलसिला वापस शुरू हो गया. रीमा, मधु और साहिल के किस्से बतियाने में लगी थी. सुधाकर की आँखें बार-बार शून्य में ताकने लगतीं और मन में यादों का बवंडर उठने लगता. वो पच्चीस की उम्र, शोभा से दोस्ती, रोज का मिलना, बाद में शादी से उसका इनकार, पिता के तबादले के बाद इस नये शहर में बसना, रीमा जैसी अच्छी लड़की से शादी, जिन्दगी का वापस पटरी पर लौटना, सुधाकर इन्हीं बातों में डूबे जाते लेकिन शोभा खुद को सम्हाल चुकी थी. उसकी चिरपरिचित व्यावहारिकता को सुधाकर ने आज फिर अनुभव किया.

“हुँह, दिल रहे तब न भावुक हो! दिल से तो कभी नाता ही नहीं रहा” सुधाकर का मन शोभा की हर हँसी पर चिढ़ उठता. वे अपना सारा ध्यान मधु और अपनी बेटियों की प्यारी-प्यारी बातूनी कहानियों में लगाये थे. साहिल ऑफिस के काम से शहर से बाहर था. तभी रीमा ने हँसते हुए टोका,

“आप मर्दों को कोई तमीज नहीं होती मेहमान की! मेहमान के लिए लाई मिठाई लेकर यहीं बैठ गये! लाइए प्लेट में निकाल के लाती हूँ!”

सुधाकर झेंप गये. जल्दी से मिठाई का डिब्बा रीमा को दिया. रीमा उठी ही थी कि सुधाकर को ध्यान आया कि सेंट वाली मिठाई से शोभा को एलर्जी की शिकायत थी. उनके मुँह से अचानक निकल गया,

“अरे इनको सेंट वाली मिठाई नुकसान करती है...”

“हैं!” रीमा को कुछ समझ नहीं आया लेकिन शोभा इसबार खुद पर काबू नहीं रख पाई. छलकने से पहले आँखों को काले चश्मे का पर्दा दे दिया. सुधाकर ने बात सम्हाली,

“इनको अचार के मसाले वाली मिठाई पसंद आएगी...अचार का बिजनेस जो इनका!”

सब हँस पड़े. रीमा भी शोभा के और कुछ लाने से मना कर देने के कारण वापस बैठ गयी. सुधाकर ने अपने मन को बीती बातों के चंगुल से झटक कर पूरी तरह छुड़ाया और रीमा के थोडा और करीब जाकर बैठ गये. गप्पों का दौर आधे घंटे और चला फिर शोभा ने चलने की आज्ञा माँगी.

“आपका घर है, आती रहिएगा....”

जाते-जाते शोभा से रीमा ने कहा. शोभा ओझल होने तक उनलोगों को मुस्कुरा के देखती रही.

रात को सोते समय रीमा ने शोभा का दिया कार्ड सुधाकर की ओर बढ़ाया,

“इस नंबर को सेव कर लीजिए...शोभा का है...”

“घर से लेकर मेरी तक हेड आप हैं...आप ही सेव करिए उसका नंबर...मैं क्या करूँगा लेकर!” बिस्तर लगाने में मगन सुधाकर ने जवाब दिया. रीमा सुधाकर की इस आदत से परिचित थी. उसने अपने ही मोबाइल में नंबर सेव कर लिया.

समय गुजरता रहा. रीमा और शोभा की बात अक्सर फोन पर होने लगी थी लेकिन सुधाकर कन्नी कटा जाते या बहुत कम बात करते. एक दिन जब वे कोचिंग निकलने के लिए तैयार हो रहे थे तो बेटियों की फुसफुसाहट कानों में पड़ी. बड़ी वाली कह रही थी,

“आज तो पक्का ही समझ...मैंने भैया से पूछा है...बोले की आज बात कर के रहूँगा...”
“वो तो दस बार ऐसा बोल चुका होगा! कभी आगे बढ़ी ही नहीं बात...” छोटी वाली को शायद भरोसा नहीं था. बड़ी उसको समझा रही थी,

“अरे ये सब बातें जल्दी में होती हैं क्या पगली? आज तय मान, मधु का हमारी भाभी के रूप में रजिस्ट्रेशन पक्का...भैया बस निकल ही रहे उससे मिलने!”

सुधाकर तो जैसे बच्चों की तरह उछल पड़ते मगर खुद को रोक लिया. बेटियों की बातों ने उनके पचपन में बचपन वाला जोश जगा दिया था. अपनी पहली संतान का घर बसते देखना उनके लिए किसी उत्सव से कम नहीं था. उनका बस चलता तो साहिल के साथ ही निकल जाते किन्तु ये संभव न था. सोच रहे थे कि कैसा मूरख है लड़का! मधु जैसी लड़की को आज तक ऑफिशियली प्रपोज नहीं किया! किसी और ने उड़ा लिया न उसको तो ये नालायक बैठा रह जाएगा कुँवारा जिंदगी भर!

साहिल से ज्यादा जल्दी तो जैसे उन्हें ही थी! शाम कोई अच्छी खबर सुनने की आस लगाए कोचिंग को निकल गये. वहाँ से बार-बार किसी न किसी बहाने रीमा को फोन मिला रहे थे कि शायद कुछ नया समाचार मिले! मगर हर बार मन मसोसना पड़ता. उधर रीमा हैरान थी सो अलग कि आज ये क्यों फोन की झड़ी लगाए हुए!

शाम को जल्दी से घर लौटे और मधु की “हाँ” की खबर सुनने को घर में तरह-तरह से बातें छेड़ी मगर किसी ने कुछ अच्छा हुआ नहीं बताया. उनका मन झल्लाता रहा. सीधे पूछने में भी हिचकिचाहट स्वाभाविक थी कि रीमा, आज साहिल मधु को प्रपोज करने गया था, क्या हुआ? सो ऊब के चुपचाप सो गये.

दिन गुजरते रहे. इधर साहिल की चंचलता में आई कमी ने सुधाकर को बेचैन कर रखा था. रीमा से कारण पूछते तो वह टाल देती. शोभा से उसकी बातचीत मगर जारी थी. दोनों में सहेलियों सा रिश्ता हो गया था. एक दिन सुधाकर से रहा नहीं गया. रीमा को अपने पास बिठा के जोर देकर साहिल की उदासी के बारे में पूछा. वह थोड़ी निराश सी बोली,

“अरे वो मधु सुना उसके साथ शादी करने को राजी नहीं है! उसने कहा कि हम बहुत अच्छे दोस्त हैं और यही रिश्ता आगे भी रखने का मन...वो सिंगल जिन्दगी जीना चाहती है”

कह के रीमा घर के कामों में लग गयी. सुधाकर का मन जैसे गुस्से से उबाल मारने लगा. उन्हें ऐसा लग रहा था कि बीता समय आज फिर से उन्हें ठगने वापस आ गया है. पास टेबल पर रखा शोभा का कार्ड दिखा. तुरंत कार निकाली और खुद ही चला कर उसके घर पहुँचे. वहाँ शोभा कुछ महिलाओं के साथ बरामदे में बैठी थी. सुधाकर को देख उसके मन में कई तरह के ख्याल आने लगे लेकिन उनमें से कोई भी नकारात्मक नहीं था. उसने साथ बैठी महिलाओं से बाद में आने को बोल सुधाकर से पूछा,

“रीमा नहीं आई?”

सुधाकर के चेहरे पर पसरी सख्ती थोड़ी और बढ़ गयी. उन्होंने उत्तर दिया,

“आई है...जीवनसाथी हमेशा एक-दूसरे के दिल में रहते हैं...सो मैं जहाँ भी जाता हूँ, वो भी साथ होती”

शोभा सुधाकर के मन में अपने प्रति दबे गुस्से को जानती थी. उसने कहा,

“आप बैठिये, मैं कुछ ठंडा लाती हूँ”

कहते-कहते उसकी हँसी छूट गयी. हालाँकि उसने रोकने की पूरी कोशिश की थी. ये सब बिल्कुल वैसा ही था जैसे तीस साल पहले का सुधाकर गुस्से में उससे कुछ कहता और वह बदले में आइसक्रीम ले आती और कहती कि लो, ठन्डे हो जाओ.

सुधाकर पर तब भी कोई असर नहीं होता था और आज भी नहीं हुआ. वे बोले,

“पहले किसी के साथ अपनापन बनाओ, जब वह तुम्हारा अपना हो जाए तो उसको पराया बना दो! ये कौन सा खेल है तुम्हारा?”

शोभा चुपचाप खड़ी सुन रही थी. सुधाकर का गुस्सा और बढ़ गया. वे चिल्लाए,
“तुमने शादी से मना क्यों किया?”

शोभा को तो अब और भी जोरों की हँसी आने लगी. किसी तरह बोली,

“अ...अरे तो अब तुम फिर से! वो भी इस उमर में मुझसे श...शादी करने की जिद लेकर आ गये! र...रीमा का क्या होगा?”

इसबार सुधाकर के भी चेहरे पर हँसी आ ही गयी लेकिन तुरंत उसको भगाया और बोले,

“मैं अपनी नहीं, अपने बेटे की शादी की बात कर रहा?”

शोभा हँसी के मारे पेट पकड़ के सोफे पर गिर पड़ी,

“ए पागल, तो मैं तुम्हारे बेटे से शादी कर लूँ?”

सुधाकर जानते थे कि शोभा ऐसे ही उनका गुस्सा उतारने के लिए कुछ भी उटपटांग बातें करती रही है. वे सिर पकड़ सोफे पर बैठ गये. हारी सी आवाज निकली,

“बकवास बंद करो अपनी...”

शोभा भी अब गंभीर हो गयी. उसने सुधाकर के सामने बैठ उनके घुटने पर हाथ रखा और बोली,

“सुधाकर, तुम जैसे सच्चे साथी को ठुकरा के जो गलती मैंने की, मैं कभी नहीं चाहूँगी कि साहिल जैसे अच्छे लड़के के साथ मधु भी वही गलती दुहराये...मैं खुद उसे लगातार समझा रही हूँ...मगर वो भी मेरी तरह अपने कुछ दोस्तों की बातों में आ चुकी है”
सुधाकर ने देखा तो शोभा की आँखों में आँसू थे. उनको खुद पर और भी गुस्सा आने लगा. दिल का कोई कोना शायद आज भी शोभा को रोते नहीं देख सकता था लेकिन अभी वे यहाँ केवल एक पिता बन के आये थे. रोना उनको भी आने लगा था. किसी तरह भरे गले से बोल पाए,

“देखो, अगर मेरे बेटे के साथ भी मेरा वाला किस्सा दुहराया गया न तो...तो मैं तुमको...देख लेना तुम...”

कहते वहाँ से निकल गये. शोभा ने उन्हें रोकना चाहा लेकिन हाथ उठ नहीं सका. एक टक से दरवाजे की ओर देखती रही. तभी मधु का आना हुआ.

“मम्मी, तुम्हारी आँखें क्यों लाल हैं?” उसने हैरत से पूछा.

“न...नहीं तो!” शोभा ने बात बदल दी, “दे आई मसालों के पैसे लाजवंती को?”

“हाँ दे दी” मधु ने चिरपरिचित नटखट मुस्कान के साथ कहा.

इधर सुधाकर का मन क्लास में नहीं लग रहा था. भला शादी किसी पर दबाव डलवा के की जाती है क्या? मधु तो बेटी की तरह है. उसकी खुशी को अपने स्वार्थों तले कैसे दबा दूँ मैं? यही उधेड़बुन मन को मथे हुए थी.

एक हफ्ता गुजरते-गुजरते सुधाकर ने निर्णय कर लिया कि शोभा से बात करेंगे और कह देंगे कि मधु पर कोई दबाव न डाले. उसे अपनी पसंद से निर्णय लेने दे.

आज उसके घर के लिए निकलने ही वाले थे कि रीमा ने चहकते हुए उनको मिठाई खिलाई और बोली,

“हमारे सास-ससुर बनने का समय आ गया जी! मधु शादी के लिए राजी हो गयी है! अभी-अभी शोभा ने बताया!”

सुधाकर ने मिठाई तो खा ली लेकिन उन्हें अपराधबोध होने लगा. ये तो बिल्कुल सही नहीं हुआ! मेरी जिद से शोभा ने मधु को विवश कर के शादी के लिए राजी करा लिया! नहीं! मैंने तब भी शोभा की ही इच्छा का सम्मान किया था, अब भी मधु की मर्जी ही मानूँगा.

वे सीधे मधु के कॉलेज पहुँचे और बाहर कार रोक के उसका इन्तजार करने लगे. वो निकली तो उसे अपने पास बुलाया. वह खुशी से उनके पास आकर बैठ गयी.

“अंकल! कैसे हैं आप?”

“मैं ठीक हूँ बेटा” सुधाकर ने उसके सिर पर हाथ फेरा और बोले, “तुमसे कुछ बात करनी है”

“हाँ-हाँ, कहिए न!”

“देख बेटा, जैसे मेरी दो बेटियाँ हैं, वैसे ही एक तीसरी तू भी मेरे लिए, आज तेरी आंटी बता रही थी कि तू अब हमारे घर हमेशा-हमेशा के लिए आनेवाली है”

सुधाकर से यह बात सुन मधु ने लजा के सिर झुका लिया. सुधाकर आगे बोले,

“मैं तब से बहुत खुश हूँ कि उस नालायक साहिल को तेरे जैसी लड़की मिलने वाली लेकिन कुछ दिनों पहले मुझे पता चला था कि तू शादी नहीं करना चाहती! तो तू शादी का निर्णय किसी जोर-जबरदस्ती में मत लेना, तू मेरी बेटी ही रहेगी, चाहे शादी कहीं भी कर”

मधु की आँखों में आँसू आ गये. वह सुधाकर से ठीक उसी तरह लिपट गयी जैसे कोई बेटी अपने पिता के सीने से लग जाती है. सिसकती हुई कहने लगी,

“अंकल, मैं हमेशा सोचती थी कि मेरे पापा अगर होते तो बिल्कुल आप जैसे ही होते, आज आपकी बात सुनकर मुझे अपनी उस सोच पर गर्व हो रहा है, आप मेरे पापा ही हैं”

“हाँ बेटा, तू मेरी तीसरी बेटी है, रोना बंद कर” सुधाकर ने मधु के आँसू पोंछे. मधु ने फिर कहना शुरू किया,

“अंकल, मुझ पर कोई प्रेशर नहीं है, मैंने अपनी मर्जी से शादी को हाँ कही, साहिल की हर बात मुझे अपनी सी लगती है, उसका प्यार, गुस्सा, लड़ना-झगड़ना, सब कुछ अपना लगता है, बस मैं इस बात को पहचान नहीं पा रही थी”

सुधाकर सुनते रहे. मधु कहे जा रही थी,

“मैंने कई बार शरारत में चोरी-छिपे मम्मी की डायरी पढ़ी, उनके साथ भी ऐसा ही हुआ था, वे बार-बार अपने उस निर्णय पर दुखी होती हैं, उनका प्यार कौन था, ये अनाम है क्योंकि उन्होंने कहीं भी उसका नाम नहीं लिखा लेकिन समय रहते उसे पहचान न पाने का दर्द उनको हमेशा सालता रहता”

मधु की इस बात से सुधाकर की आँखें शून्य में ताकने लगी थीं किन्तु उन्होंने पुनः खुद को वर्तमान से जोड़ लिया. मधु बोली,

“इसलिए मैंने कुछ दिनों पहले निश्चय कर लिया कि आपलोगों से दूर होकर मुझे अपना प्यार नहीं खोना”

सुधाकर का मन हल्का हो गया. वे बोले,

“चल तब ठीक है, तू निकल अब, मैं घर जा के तेरी आंटी से आगे की बात करता हूँ”

मधु खुशी-खुशी अपनी स्कूटी पर जा बैठी. सुधाकर ने कार स्टार्ट की ही थी की मधु की स्कूटी उनके पास आई.

“हाँ बेटा, कुछ कहना क्या?”

सुधाकर ने पूछा. कार्टून कैरेक्टर का स्टीकर लगा लाल हेलमेट पहने मधु किसी सुपरफास्ट ट्रेन की स्पीड में बोली,

“अंकल वैसे जब आप उस दिन हमारे घर आकर मम्मी से लड़ाई कर रहे थे तो मैं वो भी चोरी-छिपे देख रही थी और मुझे मम्मी के डायरी वाले उस दोस्त का नाम पता चल गया, हीहीही डरिए नहीं, किसी को नहीं बताउंगी”

कहते उसने स्कूटी दौड़ा दी. सुधाकर हकबकायी सी मुस्कान लिए उसको “रुक-रुक बदमाश कहीं की!...” कहते रह गये लेकिन वो नौ-दो ग्यारह हो चुकी थी. शरमाये सुधाकर ने कार अपनी घर की ओर बढ़ा दी. उन्हें अपने बेटे की शादी की तैयारियों में जो जुटना था! (समाप्त)


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