रविवार, 16 दिसंबर 2018

नवनिर्माण की पीर (लघुकथा)

बढ़ई के कुशल हाथ अपनी कलाकारी दिखाते जा रहे थे और ठेला आकार ले रहा था। अपने बेटे के लिए वह ठेला बनवाने आया मनोहर विषादपूर्ण दृष्टि से सारा दृश्य देख रहा था।

कितने सपने सँजोए थे उसने! अपनी आधी जिंदगी तो एक ठेले पर सब्जियाँ बेचते ही निकल गई। सोचता था कि बेटा किसी प्रकार पढ़-लिख के ग्रुप डी की भी नौकरी पा जाए तो जिंदगी बदल जाएगी लेकिन बुरी संगत ने उसे भी कुछ करने नहीं दिया।

हार कर मनोहर ने अपने बेटे के लिए भी एक ठेला बनवाने का निर्णय लिया कि कहीं वह और अधिक गलत रास्ते की ओर न चल पड़े!

तभी उसे अपने परिचित सहाय बाबू की आवाज सुनाई दी जो वहीं से गुजर रहे थे। उन्होंने हल्के-फुल्के अंदाज में उसके कंधे पर हाथ मारते हुए पूछा,

"क्या भाई मनोहर, नया ठेला बनवा रहे हो?"

बन रहे ठेले पर एकटक से ताकते हुए मनोहर ने खोई सी आवाज में उत्तर दिया,

"नहीं भैया, नया मनोहर बनवा रहा हूँ..."

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